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1403 दिन बाद नींद से जागी सरकार, खतरे में 730 राज्य आंदोलनकारियों की नौकरी

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने निरस्त की सरकार की ये दरख्वास्त, 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण पर संकट के बादल

नैनीताल, ब्यूरो। उत्तराखंड में राज्य आंदोलनकारी कोटे के आरक्षण से नौकरी पाने वाले कर्मचारियों की नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है। राज्य के आंदोनकारियों को 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण को दिए जाने के मामले में आज बुधवार को उत्तराखंड हाईकोर्ट नैनीताल में सुनवाई हुई। इसमें उत्तराखंड हाईकोर्ट की खंडपीठ ने सरकार की ओर से दिए गए प्रार्थना पत्र को निरस्त कर दिया। कोर्ट का कहना है कि प्रार्थना पत्र लिमिटेशन एक्ट की परिधि से बाहर जाकर पेश किया गया। वहीं, यह आदेश के 30 दिन के भीतर पेश किया जाना था। जबकि इस आदेश को हुए 1403 दिन हो चुके हैं। सरकार अब मोडिफिकेशन एप्लिकेशन हाईकोर्ट में पेश कर रही है। हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि अब इसका कोई आधार नहीं रह गया है, सरकार की ओर से देर से दाखिल करने का कोई ठोस कारण नहीं दिया गया। यह प्रार्थना पत्र लिमिटेशन एक्ट की परिधि से बाहर जाकर पेश किया गया जबकि आदेस होने के 30 दिन के भीतर पेश किया जाना था।

गौरतलब है कि उत्तराखंड में राज्य आंदोलनकारियों को 2004 में विकास पुरुष के नाम से प्रसिद्ध स्व. नारायण दत्त तिवारी सरकार के कार्यकाल में दस फीसदी आरक्षण दिए जाने के दो शासनादेश जारी किए गए थे। पहला शासनादेश लोक सेवा आयोग से भरे जाने वाले पदों के लिए, जबकि दूसरा लोक सेवा आयोग की परिधि के बाहर के पदों के लिए था। इस संबंध में जीओ जारी होने के बाद राज्य आंदोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण लागू किया गया। 2011 में उच्च न्यायालय ने इस जीओ पर रोक लगा दी। बाद में हाईकोर्ट ने इस मामले को जनहित याचिका में तब्दील करके 2015 में इस पर सुनवाई की। खंडपीठ में शामिल दो न्यायाधीशों ने आरक्षण दिए जाने और नहीं दिए जाने को लेकर अपने अलग अलग निर्णय दिए।

दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार ने आज बुधवार को राज्य लोक सेवा आयोग की परिधि से बाहर वाले शासनादेश में शामिल प्रावधान के संशोधन को प्रार्थना पेश किया था, जिसको कोर्ट ने निरस्त कर दिया। इस प्रार्थना पत्र का विरोध करते हुए राज्य आंदोलनकारी अधिवक्ता रमन साह ने कोर्ट को बताया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी विचाराधीन है। 2015 में कांग्रेस सरकार ने विधान सभा में विधेयक पास कर राज्य आंदोलनकारियों को 10 फीसद आरक्षण देने का विधेयक पास किया और इस विधेयक को राज्यपाल के हस्ताक्षरों के लिये भेजा, लेकिन राजभवन से यह विधेयक वापस नहीं आया। अभी तक आयोग की परिधि से बाहर 730 लोगो को नौकरी दी गयी है, जो अब खतरे में है।

इससे पहले न्यायाधीश सुधांशु धुलिया ने अपने निर्णय में कहा कि सरकारी सेवाओं में 10 फीसद क्षैतिज आरक्षण देना नियम विरुद्ध है। दूसरी ओर न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी ने अपने निर्णय में आरक्षण को संवैधानिक माना। फिर यह मामला सुनवाई के लिए दूसरी कोर्ट को भेजा गया। उसने भी आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया। साथ मे कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16 में कहा गया कि सरकारी सेवा के लिए नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त है। इसलिए आरक्षण दिया जाना असंवैधानिक है।

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