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हिंदी पत्रकारिता दिवस : अब न वो ‘पत्रकार’ रहे न पत्रकारिता…

  • योगेश भट्ट

हिंदी पत्रकारिता के 193वें जन्म दिवस के बहाने आज कुछ बात पत्रकारिता और पत्रकारों की। आज जब हिंदी पत्रकारिता 19 दशक की यात्रा पूरी कर चुकी है, तब इतना तो साफ हो चुका है कि इस सफर में पत्रकार और पत्रकारिता दोनों ही ‘गिरावट’ के शिकार हुए हैं। आज न तो पत्रकारिता ‘मिशन’ है और न पत्रकार ‘प्रहरी’,निसंदेह हिंदी पत्रकारिता का दायरा बढा है l

नब्बे के दशक के बाद हिंदी भाषी अखबार सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार बने हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक पत्रकार की गरिमा गिरी है l आम जन के मन में उसके प्रति सम्मान का भाव नहीं है।

इसमे कोई दो राय नहीं है कि पेशागत मूल्यहीनता के कारण यह स्थिति है, आज पत्रकार समाज की आर्थिक, सामाजिक जरूरतों को बल देने के बजाए बाजार की भाषा बोल रहे हैं। यह उस हिंदी पत्रकारिता की स्थिति है, जो कभी जनमत बनाने के लिए जानी जाती थी, जिसका स्वर्णिम इतिहास रहा है, जो जन सरोकारों से जुड़ी रही। राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने से लेकर भाषाई विकास में जिस पत्रकारिता का योगदान रहा है, दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज वह पत्रकारिता ‘खो’ गई है।

हिंदी पत्रकारिता का जो मौजूदा स्वरूप है, उसमें तमाम चुनौतियों के बावजूद गलतफहमियां भी इस कदर गहरा चुकी है कि पत्र और पत्रकारों को लगता है मानो वे ही ‘पावर सेंटर’ हैं। इसी गलतफहमी के चलते हिंदी पत्रकारिता में भी अन्य क्षेत्रों की तरह माफियावाद पनपने लगा है। यह माफियावाद सत्ता के गलियारों से लेकर गांव-कस्बों में काम करने वाले पत्रकारों की कार्यशैली में साफ दिखता है।

आज पत्रकार किस लिए जाने जाते हैं? गलत प्रमोशनों, चोर दरवाजे से नौकरियों,तबादलों,शराब और खनन के ठेकों या बड़े सौदों आदि में दलाली के लिए। अब बताईये , जब अच्छे और सफल पत्रकार का आंकलन इस कसौटी पर होगा, तो क्या स्थिति होगी? आज पत्रकारों के लिए जन सरोकारों से जुड़ना मायने नहीं रखता।

सच यह है कि अब पत्रकारिता लोकमत का निर्माण नहीं करती। कभी कहा जाता था कि पत्रकारिता समाज का दर्पण होती है, लेकिन आज इस दर्पण में कोई अपना चेहरा नहीं देखना चाहता। आज हिंदी पत्रकारिता बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। इस पर वाकई चिंतन-मनन की जरूरत है।

हिंदी पत्रकारिता का इतिहास बेहद गरिमापूर्ण रहा है। आज के ही दिन सन् 1926 को पंडित युगल किशोर शुक्ल ने पहले हिंदी भाषी अखबार को पाठकों के सामने रखा था। तब से शुरू हुए हिंदी पत्रकारिता के सफर ने जो शीर्ष स्थान हासिल किया, वह आज नजर भी नहीं आता। वर्ष 1826 के बाद तमाम अखबारों का प्रकाशन हुआ। कुछ चले, तो कुछ बंद भी हुए, लेकिन खास बात यह थी कि हर अखबार के पीछे मकसद था।

दरअसल हिंदी पत्रकारिता तो राष्ट्रीयता की कहानी है। तब आज के समय की तरह अंधी दौड़ नहीं थी। तब अखबार जन सरोकारों के लिए खुलते थे। मिशन के लिए खुलते थे। आज स्थिति एक दम उलट है। आज अखबार अपनी दुकानों और धंधों को चलाने-बचाने के लिए चल रहे हैं।

आज पत्रकार मिशन के लिए नहीं, बल्कि नौकरी के लिए पत्रकारिता कर रहे हैं। वे लोग पत्रकार बन रहे हैं, जो तमाम मोर्चो पर फेल हो चुके हैं। हिंदी पत्रकारिता के लिए इससे चिंताजनक स्थिति और क्या होगी। एक दौर था, जब भारतेंदु हरिश्चंद्र, विष्णु पराड़कर, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे नाम हिंदी पत्रकारिता की पहचान थे। भारतेंदु युग तो आज भी आदर्श व निर्भीक पत्रकारिता का युग माना जाता है। नए पत्रकारों को जितना प्रोत्साहित उन्होंने किया शायद ही किसी और ने किया होगा। राष्ट्रीय आंदोलनों में अपनी भूमिका निभाते हुए तब पत्रकारों ने तमाम यातनाएं सही।

बावजूद इसके वे कभी भी आदर्शों से नहीं डिगे, लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल उल्ट हैं। आज नए-नए माध्यम नई-नई चुनौतियों के साथ सामने है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के बाद डिजिटल और सोशल मीडिया बड़े बदलाव की संभावनाओं के साथ सामने हैं। ऐसे में पत्रकारिता के तत्व को बचाए रखना बड़ा सवाल तो है ही, साथ ही ‘पत्रकार’ की छवि भी चुनौती है। आज दोनो ही के लिए अब इस दिशा में सोचने और नई राहें खोजने का वक्त है।

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