उत्तराखंड

प्रकृति का अनमोल उपहार है उत्तराखण्ड का पर्यटन स्थल रूपकुंड

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में स्थित रमणीक स्थल रूपकुंड पर्यटन मानचित्र पर अब छा चुका है। चमोली जिले के सीमान्त देवाल विकास खंड में समुद्र तल से 16200 फुट की ऊंचाई पर नंदाकोट, नंदाघाट और त्रिशूल जैसे विशाल हिम पर्वत शिखरों की छांव में चट्टानों तथा पत्थरों के विस्तार के बीच फैला हुआ प्रकृति का अनमोल उपहार रूपकुंड एक ऐसा मनोरम स्थल है जो अपनी स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, दिव्य, अनूठे रहस्यमय स्वरूप और नयनाभिराम दृश्यों के लिए जाना जाता है।

रूपकुंड की यात्रा के लिए जून उत्तरार्द्ध से सितम्बर उत्तरार्द्ध का समय सर्वोत्तम होता है क्योंकि इसके बाद इस पूरे क्षेत्र में हिमपात का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है जिससे पर्यटकों को यात्रा के लिए अनुकूल परिस्थितियां दुर्लभ हो जाती हैं।

प्रकृति की अनूठी कृति रूपकुंड का अवलोकन करने जाने के लिए श्रीनगर, कर्णप्रयाग तथा देवाल होते हुए भी जाया जा सकता है, लेकिन यदि ट्रैकिंग के रूप में ग्वालदम से पदयात्रा की जाए तो पर्यटक उस क्षेत्र के ग्रामीण जनजीवन, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत तथा अनछुए स्थलों से जुड़े विशिष्ट अनुभवों से ओत−प्रोत होकर लगभग 10 दिन की अवधि में रूपकुंड पहुंचता है। पर्यटक तीन दिन की पदयात्रा के प्रथम चरण में मुंदोली तथा बाण होते हुए लगभग 70 किमी की दूरी तय करने के पश्चात वेदनी बुग्याल पहुंचते हैं।

यहां मखमली हरी घास के मैदान हैं जिन्हें कश्मीर के सोनमर्ग और गुलमर्ग जैसे नामों से जाना जाता है। समुद्रतल से 2400 मीटर की ऊंचाई पर पसरा हुआ वेदनी बाग एशिया के प्रमुख विशाल बागों में से एक है। यहां पहुंचने पर पर्यटक की थकान पल भर में उड़न छू हो जाती है और वह ताजगी से सराबोर होकर अनोखी स्फूर्ति का अनुभव करता है। उसे यहां असीम सुखद आनंद की अनुभूति होती है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र विभिन्न रंग−बिरंगे पुष्पों की अनेक प्रजातियों तथा नाना प्रकार की औषधियुक्त दुर्लभ जड़ी−बूटियों से भरा पड़ा है जहां पर्यटक को स्वतः ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो जाता है।

कहा जाता है कि वेदों की रचना यहीं पर की गई थी। यहां मौजूद एक छोटे कुंड में किया गया तर्पण पूर्वजों के लिए कल्याणकारी माना जाता है। अगले 18 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद पर्यटक रूपकुंड के पास पहुंच जाता है। इस दिव्य कुंड की अथाह गहराई, कटोरेनुमा आकार तथा चारों ओर बिखरे नर कंकाल व वातावरण में फैले गहन निस्तब्धता से मन में कौतूहल व जिज्ञासा का ज्वार उत्पन्न हो जाता है। रूपकुंड के रहस्य का प्रमुख कारण ये नर कंकाल ही हैं जो न केवल इसके इर्द−गिर्द दिखते हैं बल्कि तालाब में इनकी परछाइयां भी दिखाई पड़ती हैं। इन अस्थि अवशेषों के विषय में क्षेत्रवासियों में अनेक प्रकार की किवदन्तियां प्रचलित हैं जिन्हें सुनकर पर्यटक रोमांचित हो उठते हैं। वर्षों से पुरातत्ववेत्ता व इतिहासकार इन नर कंकालों के रहस्य का पता लगाने में जुटे हैं लेकिन अब तक कोई ठोस और सर्वमान्य हल नहीं निकाल पाए हैं।

एक पौराणिक कथा के अनुसार इस रहस्यमयी रूपकुंड की उत्पत्ति भगवान शिव के त्रिशूल गाड़ने से हुई थी। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर मां पार्वती के साथ कैलाश पर्वत की ओर गमन कर रहे थे तो माता पार्वती प्यास से व्याकुल हो उठीं तब शिवजी ने अपना त्रिशूल गाड़कर एक कुंड की रचना की। पार्वती जी ने अंजुलि से कुंड का जल पी कर अपनी प्यास बुझाई। जल पीते समय रूपकुंड के जल में अपने श्रृंगार का प्रतिबिम्ब देखकर वे अति हर्षित हो गईं। माता पार्वती को प्रसन्नचित और प्रफुल्लित देखकर भगवान शंकर ने इस कुंड को रूपकुंड का नाम दे दिया।

पर्यटन विभाग के सौजन्य से वेदनी बाग में हर वर्ष रूपकुंड महोत्सव का आयोजन किया जाता है। वैसे तो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को प्रकृति ने अपने विपुल भण्डार से अद्भुत सौंदर्य देकर काफी समृद्ध बनाया है जिसका लुत्फ उठाने के लिए देश−विदेश के हजारों पर्यटक हर वर्ष यहां आते हैं। लेकिन मौजूदा पर्यटन स्थलों में बहुत से स्थान अछूते पड़े हैं जिनके विषय में पर्यटन विभाग सड़कों के किनारे सम्बंधित स्थलों के विवरण दर्शाते साइनबोर्ड लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है, रूपकुंड भी इन्हीं में से एक है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button